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Sunday, February 16, 2014

कदम रुक गए जब पहुंचे हम रिश्तों के बाज़ार में... बिक रहे थे रिश्ते खुले आम व्यापार में.. कांपते होठों से मैंने पुछा, "क्या भाव है भाई इन रिश्तों का?" दूकानदार बोला: "कौनसा लोगे..? बेटे का ..या बाप का..? बहिन का..या भाई का..? बोलो कौनसा चाहिए..? इंसानियत का.या प्रेम का..? माँ का..या विश्वास का..? बाबूजी कुछ तो बोलो कौनसा चाहिए.चुपचाप खड़े हो कुछ बोलो तो सही... मैंने डर कर पुछ लिया दोस्त का..? दुकानदार नम आँखों से बोला: "संसार इसी रिश्ते पर ही तो टिका है ..,माफ़ करना बाबूजी ये रिश्ता बिकाऊ नहीं है..इसका कोई मोल नहीं लगा पाओगे, और जिस दिन ये बिक जायेगा... उस दिन ये संसार उजड़ जायेगा..."सभी मित्रों को समर्पित..


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